Skip to main content
अधिकारी बनने का सुख
*************************
बचपन से ही हमारी इच्छा थी कि एक दिन "अधिकारी" बनूं। इसके लिए ज्यादा कुछ करना नही पड़ा क्यों कि नैनी में ही पला बढ़ा था तो इलाहाबाद में एक लंबी तैयारी भी कर लिया लेकिन अधिकारी बन पाने में असफल रहा। कालचक्र के अनुसार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से निकलने के बाद विभिन्न प्रतिष्ठानों में कुछ दिन का स्ट्रगल भी हुआ लेकिन इसी बीच नौनिहालों के भविष्य संवारने के लिए बीटीसी में एडमिशन मिल गया और अंततः प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक पद की जिम्मेदारी मिली। ईश्वरीय आशीर्वाद समझकर सहर्ष स्वीकार किया। गरीब नौनिहालों के लिए सुंदर भविष्य का निर्माण करना अपना मिशन बनाया और सहायक अध्यापक पद का आनंद लेने लगा लेकिन अधिकारी बनने की दमित इच्छा रह-रहकर टीस भी देती रही।
शुक्र है कि निर्वाचन आयोग "एक दिन का अधिकारी" बनाकर हमारी बचपन की इच्छा को साकार करता रहता है। ये पांचवी दफ़ा था जब हम "एक दिन के अधिकारी" बने थे। जहां हमारे बहुत से शिक्षक साथी चुनाव ड्यूटी कटवाने के लिए परेशान रहते हैं और तरह-तरह के जुगाड़/बहाने कर ड्यूटी कटवाते हैं, वहीं चुनाव आने पर हम ईश्वर से मनाते हैं कि हमारी ड्यूटी लगे और हम अधिकारी बनें।
CU,BU,VVPAT (अबकी बार), चुनाव सामग्री, झोला, थैला आदि लेकर बस में ठुसा कर,भूखे प्यासे जब मतदान ड्यूटी स्थल पर पहुंचते हैं और वहां आदर्श मतदान केंद्र होने के बावजूद मतदान अधिकारियों को न बैठने की व्यवस्था न सोने की व्यवस्था को देखकर भी अधिकारी होने की आत्मिक खुशी में मग्न रहते है। फिर शुरू होता है धूल फांक रहे बेंच और मेज पर हाथ से झाड़ लाग के बैठ अपना पेपर वर्क पूरा करने का। 5 बज चुके हैं और अब तक कमर के नीचे का हिस्सा जवाब दे रहा होता है और बोल रहा होता है "अब तो हमे भी आराम दे दो "अधिकारी महोदय"।

ध्यान दें !! बाहर आदर्श मतदान केंद्र की तैयारियां चल रही हैं और रात को 10 बजे के आस पास टेंट वाला गद्दा मिलता है वो भी तब जब शरीर पूरी तरह से जवाब दे रहा होता है। साथ आया हुआ सफाई कर्मी भी अधिकारी होने की खुशी में मग्न है। सुरक्षा में फोर्स तैनात हैं, इससे VIP वाला अधिकारी होने का आभास होता है। लेकिन जब रात को मच्छर काटते हैं तो उठकर बैग से मच्छरदानी निकाल के लगाने तक की हिम्मत नही होती तो अपने अधिकारी होने पर संदेह होता है। एक दिन के लिए अधिकारी बना हुआ सफाई कर्मी साथी कह रहा था कि अधिकारी तो वह था जो दस मिनट के लिए  हमारे पोलिंग बूथ पर आया था और हमें पैसा बांटकर अपने घर जाकर आराम से सो रहा होगा। हम उसको समझाते हैं कि एक रात की ही तो बात है; कष्ट सहकर एक दिन के लिए अधिकारी बनना किसी उपलब्धि से कम नहीं है । सभी "सर - सर" कहेंगे अन्यथा सोच लो सफाईकर्मी को कौन "सर - सर" कहता है। सफाईकर्मी चिंतक प्रवृत्ति का लगता है।😁
मच्छर मारते हुए बोलता है कि सर अपना काम निकालने के लिए हमें एक दिन का अधिकारी बनाया जाता है, काम निकलने के बाद जब चुनाव सामग्री जमा हो जाती है तो रात को 12--1 बजे हमें घर जाने के लिए कोई साधन भी नहीं मिलता है और सुबह हो जाती है।
अगले दिन लोकतंत्र के महान उत्सव में उत्साह के साथ नहा धोकर,अच्छे कपड़े पहनकर, जिससे अधिकारी होने का लोगों पर रौब पड़े,अपने ड्यूटी में मुस्तैद हो जाता हूँ। बाहर निकल के देखता हूँ तो केंद्र एक दुल्हन की तरह सजा है लेकिन जब पिछली रात की याद आती है तो बस यही ख्याल आता है कि दुल्हन को अपने पीहर छोड़ जाने की सोच से ही जो दर्द हुआ होगा वही हाल अपना लगता है...
जैसे उसके दर्द की कोई कीमत नही उसे तो जाना ही है, वैसे ही हमे भी मतदान सकुशल पूर्ण कराना ही है...😆
फिर जब कोई "सर सर" कहता तो सीना 56 नहीं 57 इंच का हो जाता। सफाईकर्मी साथी का रौब तो देखने लायक था। सचमुच वाला अधिकारी प्रतीत होता है।  बाहर हथियार ताने हुए सुरक्षाकर्मी हमें VIP वाला अधिकारी होने का सुखद अनुभूति करा रहे हैं।
मतदान सफलतापूर्वक संपन्न कराने के बाद बस में पुनः ठुसा कर वापस मतदान सामग्रियों को जमा करने के स्थान पर पहुंचकर लगता है कि हम वापस अपनी पहली वाली दशा में आ गये। 'अधिकारी' वाला रुतबा खत्म हो जाता है। फोर्स वालों का कोई अता पता नहीं, चुनाव सामग्री जमा कराने वाले बाबू/लेखपालों के आगे गिड़गिड़ाना शुरू होता है। " सर जी बहुत दूर जाना है, पहले मेरा जमा कर लीजिए।" वो कहता है कि फलां कागज तो लाये नहीं अथवा फलां चीजें तो लिखे ही नहीं; जाओ बना के आओ तब जमा करेंगे। भूखे प्यासे "एक दिन वाले भूतपूर्व अधिकारी" रो रोकर लिख पढ़ रहे हैं, किसी जानकार अनुभवी व्यक्ति से चिरौरी कर अपना काम बना रहे हैं।
अभी आधी सामग्री जमा ही हुई थी कि काउंटर वाले एक भाई साहब गुर्राते बोले "एड्रेस टैग पर बूथ का नाम भी नही लिख सकते थे!!!" मैं एकटक भाई साहब को निहारा और सारी ताकत लगा के (जितनी बची थी "एक दिन के साहब" बने रहने के बाद) ज़ोर से बोला "भाई साहब जिस एड्रेस टैग को आपने पकड़ा है वो हैंडल में लगा है, मेरे द्वारा लगाया गया एड्रेस टैग लॉक पर लगा है वो भी सीलिंग के साथ, कृपया वो पढ़ें...ये आप लोगों के द्वारा ही लगाया गया है जिसमें वो चीज मिसिंग होगी जो आप खोज रहे है!!!!" उन्हें काटो तो खून नही वाली फीलिंग आयी और तुरन्त पलट गए। उसके बाद हमारी गर्मी देख काउंटर वाले अन्य भाई साहब भी चुप चाप पत्रों का मिलान कर सब सामान जमा कर लिए।🤣🤣🤣
समस्त सामग्री जमा करते-करते रात के 12  बज गए थे, अब कोई घर जाए तो कैसे?
सो पैदल ही घसीट देते हैं।
लेकिन सबसे भयंकर दुःख तब हुआ जब भूखे- प्यासे घर पहुंचने पर पत्नी पूछती है कि सबसे पहले ये बताईये कि आपकी "द्वितीय मतदान अधिकारी" '💃' कैसी थी ?????

और हमारा "अधिकारी" बनने का क्षणिक सुख भी धूमिल हो जाता है . .
😃😃😃

Comments

Popular posts from this blog

Weekend Trip to Silhat Dam as well as Nagwa Dam, Sonbhadra, UP, India

यात्रा की शुरुआत हम लोगों ने सबसे पहले सोनभद्र जिले के रॉबर्ट्सगंज मुख्यालय से शुरू की वहां हम लोगों ने पता करने पर पाया कि कुछ ही दूर पर रामगढ़ नाम का एक बाजार है जहां से सिलहट डैम और नगमा डैम के लिए रास्ते जाते हैं और यह भी पता लगाया कि वहां आसपास रुकने के लिए कोई भी होटल या कोई भी धर्मशाला वगैरह नहीं है हम लोगों ने वहां से कैब ली और आगे नई बाजार होते हुए रामगढ़ बाजार पहुंचे लगभग 30 किलोमीटर की दूरी आधे घंटे में तय हुई  रास्ता अच्छा था। रामगढ़ बाजार से थोड़ा आगे बढ़ने पर पन्नू गंज थाना पड़ता है जहां से दाहिने साइड हम लोगों ने अपनी गाड़ी मोड़ ली। उस रास्ते से करीब 4 किलोमीटर आगे जाने पर एक नहर मिलती है उस नहर  की तरफ हम लोग बाएं मुड़ गए और उसी नहर को पकड़ के आगे बढ़े । स्थानीय लोगों ने बताया कि यह नहर सिलहट डैम से होकर आ रही है हम लोग उसी नहर के किनारे किनारे आगे बढ़ते चले गए रास्ता बढ़िया है बाइक से भी जाने लायक है फोर व्हीलर से भी जाने लायक है जिस भी साधन से आप जाना चाहें, जा सकते हैं। थोड़ी ही देर में हम लोग पहुंच गए पहुंचने के बाद हल्की बारिश हो चुकी थी मौसम बहुत सुहावना...

चलिये इस बार घूमने चलते हैं दक्षिण भारत के कुछ प्रांत में..

 चलिये इस बार घूमने चलते हैं दक्षिण भारत के कुछ प्रांत में.. सबसे पहले सोनभद्र से मिर्ज़ापुर,लखनऊ होते हुए बंगलुरु तक के सफर की बातें.. मौका था अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के राष्ट्रीय अधिवेशन का, जो कि आयोजित था कर्नाटक राज्य के बंगलुरू में। तो हुआ कुछ यूं कि संघमित्रा एक्सप्रेस जो कि हमारे नजदीकी रेलवे स्टेशन मिर्जापुर (जी हां वही कालीन भैया वाला मिर्जापुर) से बेंगलुरु के लिए हमने बुक की थी, स्लीपर क्लास में, क्यों कि और  दूसरे कम्पार्टमेंट में जगह खाली नही थी क्यों कि इस रूट पर, गन्तव्य के लिए एकमात्र यही ट्रेन उपलब्ध है। रात के 12 बजे के आस पास का समय, तभी धीरे से दबे पांव वो ट्रेन स्टेशन पर लगी और ये क्या !!! ट्रेन के स्लीपर कोच में पांव रखने तक की जगह नही ! आज की रात, कल का दिन, कल की रात, परसों का पूरा दिन था जो कि इसी ट्रेन में गुजारना था, सो हम लोगों ने ट्रेन में बोर्ड न करने का निर्णय लिया। हम लोग मतलब (संघ के पदाधिकारीगण के रूप में हम सात लोग)। फिलहाल वैकल्पिक व्यवस्था के अंतर्गत सिर्फ और सिर्फ हवाई मार्ग का ही विकल्प उपलब्ध था ससमय अधिवेशन में पहुचने के लिए...

दक्षिण भारत भाग दो

 गतांक से आगे.. तो अब बात मुद्दे की, मुद्दा था ABRSM के राष्ट्रीय अधिवेशन में जंहा हमें तीन दिनों तक प्रतिभाग करना था, महासंघ द्वारा चुने गए स्थान पर एयरपोर्ट/रेलवे स्टेशन से पहुचाने की जिम्मेदारी जिन कर्मठी साथियों को दी गयी थी वो पूरी तन्मयता से रात के दो बजे भी हम लोगों के लिए एयरपोर्ट के बाहर मुस्तैद मिले। एकबारगी तो लगा शायद खुद से ही लोकेशन ट्रैक करके पहुचना होगा लेकिन ये क्या ! एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही ABRSM की टीम मौजूद थी। जल्दी ही हम लोगों को कैब द्वारा गन्तव्य तक रवाना किया गया, कैब में बैठने से पहले हम लोगों ने सोचा कि कैब तो 5 सीटर है तो एडजस्ट करके 5+1 (ड्राइवर) जरूरत पड़ने पर कर लेंगे, लेकिन हम यूपी में नही थे, वँहा हमारे सारथी ने बताया कि गाड़ी में केवल तीन पैसेंजर बैठेंगे, तो हम 7 लोगों के लिए तीन कैब की व्यवस्था ABRSM टीम द्वारा तुरन्त कर दी गयी। अब चूंकि वँहा से भी करीब एक डेढ़ घण्टे की दूरी पर चेननहल्ली नामक वो जगह थी जंहा हमें पहुचना था और कैब में रात के दो से तीन के बीच का समय, नींद और झपकी आनी तो लाज़मी थी, तो हम भी उसी में एक हल्की नींद मार लिए, और फिर आधी नीं...